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वानरराज का बदला की कहानी Vanarraj Ka Badla Story in Hindi

वानरराज का बदला की कहानी Vanarraj Ka Badla Story in Hindi

एक नगर के राजा चन्द्र के पुत्रों को बन्दरों से खेलने का व्यसन था । बन्दरों का सरदार भी बड़ा चतुर था । वह सब बन्दरों को नीतिशास्त्र पढ़ाया करता था । सब बन्दर उसकी आज्ञा का पालन करते थे । राजपुत्र भी उन बन्दरों के सरदार वानरराज को बहुत मानते थे ।

उसी नगर के राजगृह में छो़टे राजपुत्र के वाहन के लिये कई मेढे भी थे । उन में से एक मेढा बहुत लोभी था । वह जब जी चाहे तब रसोई में घुस कर सब कुछ खा लेता था । रसोइये उसे लकड़ी से मार कर बाहिर निकाल देते थे ।

वानरराज ने जब यह कलह देखा तो वह चिन्तित हो गया । उसने सोचा ’यह कलह किसी दिन सारे बन्दरसमाज के नाश का कारण हो जायगा कारण यह कि जिस दिन कोई नौकर इस मेढ़े को जलती लकड़ी से मारेगा, उसी दिन यह मेढा घुड़साल में घुस कर आग लगा देगा । इससे कई घोड़े जल जायंगे । जलन के घावों को भरने के लिये बन्दरों की चर्बी की मांग पैदा होगी । तब, हम सब मारे जायंगे ।’

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इतनी दूर की बात सोचने के बाद उसने बन्दरों को सलाह दी कि वे अभी से राजगृह का त्याग कर दें । किन्तु उस समय बन्दरों ने उसकी बात को नहीं सुना । राजगृह में उन्हें मीठे-मीठे फल मिलते थे । उन्हें छोड़ कर वे कैसे जाते ! उन्होंने वानरराज से कहा कि “बुढ़ापे के कारण तुम्हारी बुद्धि मन्द पड़ गई है । हम राजपुत्र के प्रेम-व्यवहार और अमृतसमान मीठे फलों को छोड़कर जंगल में नहीं जायंगे ।”

वानरराज ने आंखों में आंसू भर कर कहा – “मूर्खो ! तुम इस लोभ का परिणाम नहीं जानते । यह सुख तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा ।” यह कहकर वानरराज स्वयं राजगृह छो़ड़्कर वन में चला गया ।

उसके जाने के बाद एक दिन वही बात हो गई जिस से वानरराज ने वानरों को सावधान किया था । एक लोभी मेढा जब रसोई में गया तो नौकर ने जलती लकड़ी उस पर फैंकी । मेढे के बाल जलने लगे । वहाँ से भाग कर वह अश्‍वशाला में घुस गया । उसकी चिनगारियों से अश्‍वशाला भी जल गई ।

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वानरराज का बदला की कहानी Vanarraj Ka Badla Story in Hindi

कुछ़ घोड़े आग से जल कर वहीं मर गये । कुछ़ रस्सी तुड़ा कर शाला से भाग गये ।

तब, राजा ने पशुचिकित्सा में कुशल वैद्यों को बुलाया और उन्हें आग से जले घोड़ों की चिकित्सा करने के लिये कहा । वैद्यों ने आयुर्वेदशास्त्र देख कर सलाह दी कि जले घावों पर बन्दरों की चर्बी की मरहम बना कर लगाई जाये । राजा ने मरहम बनाने के लिये सब बन्दरों को मारने की आज्ञा दी । सिपाहियों ने सब बन्दरों को पकड़ कर लाठियों और पत्थरों से मार दिया ।

वानरराज को जब अपने वंश-क्षय का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखी हुआ । उसके मन में राजा से बदला लेने की आग भड़क उठी । दिन-रात वह इसी चिन्ता में घुलने लगा । आखिर उसे एक वन मेम ऐसा तालाब मिला जिसके किनारे मनुष्यों के पदचिन्ह थे ।

उन चिन्हों से मालूम होता था कि इस तालाब में जितने मनुष्य गये, सब मर गये; कोई वापिस नहीं आया । वह समझ गया कि यहाँ अवश्य कोई नरभक्षी मगरमच्छ है । उसका पता लगाने के लिये उसने एक उपाय किया । कमल नाल लेकर उसका एक सिरा उसने तालाब में डाला और दूसरे सिरे को मुख में लगा कर पानी पीना शुरु कर दिया ।

थोड़ी देर में उसके सामने ही तालाब में से एक कंठहार धारण किये हुए मगरमच्छ निकला । उसने कहा- “इस तालाब में पानी पीने के लिये आ कर कोई वापिस नहीं गया, तूने कमल नाल द्वारा पानी पीने का उपाय करके विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया है । मैं तेरी प्रतिभा पर प्रसन्न हूँ । तू जो वर मांगेगा, मैं दूंगा । कोई सा एक वर मांग ले ।”

वानरराज ने पूछा – -“मगरराज ! तुम्हारी भक्षण-शक्ति कितनी है ?”

मगरराज- -“जल में मैं सैंकड़ों, सहस्त्रों पशु या मनुष्यों को खा सकता हूँ; भूमि पर एक गीडड़ भी नहीं ।”

वानरराज- -“एक राजा से मेरा वैर है । यदि तुम यह कंठहार मुझे दे दो तो मैं उसके सारे परिवार को तालाब में लाकर तुम्हारा भोजन बना सकता हूँ ।”

मगरराज ने कंठहार दे दिया । वानरराज कंठहार पहिनकर राजा के महल में चला गया । उस कंठहार की चमक-दमक से सारा राजमहल जगमगा उठा । राजा ने जब वह कंठहार देखा तो पूछा- “वानरराज ! यह कंठहार तुम्हें कहाँ मिला ?”

वानरराज- -“राजन् ! यहाँ से दूर वन में एक तालाब है । वहाँ रविवार के दिन सुबह के समय जो गोता लगायगा उसे वह कंठहार मिल जायगा ।”

राजा ने इच्छा प्रगट की कि वह भी समस्त परिवार तथा दरबारियों समेत उस तालाब में जाकर स्नान करेगा, जिस से सब को एक-एक कंठहार की प्राप्ति हो जायगी ।”

निश्चित दिन राजा समेत सभी लोग वानरराज के साथ तालाब पर पहुँच गये । किसी को यह न सूझा कि ऐसा कभी संभव नहीं हो सकता । तृष्णा सबको अन्धा बना देती है । सैंकड़ों वाला हजा़रों चाहता है; हजा़रों वाला लाखों की तृष्णा रखता है; लक्षपति करोड़पति बनने की धुन में लगा रहता है । मनुष्य का शरीर जराजीर्ण हो जाता है, लेकिन तृष्णा सदा जवान रहती है । राजा की तृष्णा भी उसे उसके काल के मुख तक ले आई ।

सुबह होने पर सब लोग जलाशय में प्रवेश करने को तैयार हुए । वानरराज ने राजा से कहा- “आप थोड़ा ठहर जायं, पहले और लोगों को कंठहार लेने दीजिये । आप मेरे साथ जलाशय में प्रवेश कीजियेगा । हम ऐसे स्थान पर प्रवेश करेंगे जहां सबसे अधिक कंठहार मिलेंगे ।”

जितने लोग जलाशय में गये, सब डूब गये; कोई ऊपर न आया । उन्हें देरी होती देख राजा ने चिन्तित होकर वानरराज की ओर देखा । वानरराज तुरन्त वृक्ष की ऊँची शाखा पर चढ़कर बोला- -“महाराज ! तुम्हारे सब बन्धु-बान्धवों को जलाशय में बैठे राक्षस ने खा लिया है । तुम ने मेरे कुल का नाश किया था; मैंने तुम्हारा कुल नष्ट कर दिया । मुझे बदला लेना था, ले लिया । जाओ, राजमहल को वापिस चले जाओ ।”

राजा क्रोध से पागल हो रहा था, किन्तु अब कोई उपाय नहीं था । वानरराज ने सामान्य नीति का पालन किया था । हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा से और दुष्टता का उत्तर दुष्टता से देना ही व्यावहारिक नीति है ।

राजा के वापिस जाने के बाद मगरराज तालाब से निकला । उसने वानरराज की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रशंसा की ।

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