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बुद्धि का सौदागर हिन्दी कहानी Buddhi Ka Saudagar Story in Hindi

बुद्धि का सौदागर हिन्दी कहानी Buddhi Ka Saudagar Story in Hindi

एक समय की बात है। गुजरात के एक छोटे-से गाँव में एक निर्धन लड़का रहता था। उसके माता-पिता नहीं थे। गाँव में उसके पास आजीविका का कोई साधन नहीं था। परंतु वह बहुत बुद्धिमान था। अपने पिता से उसने काम की कई बातें सीखी थीं।

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एक दिन उसके दिमाग में एक अद्भुत विचार आया। उसने शहर जाने की ठान ली। शहर जाकर उसने एक सस्ती सी दुकान किराए पर ले ली और दुकान के बाहर एक बोर्ड लगा दिया, जिसपर लिखा था-

बुद्धि का सौदागर
यहाँ बुद्धि बिकती है।

लड़के की दुकान के आस-पास फल, सब्जियाँ, कपड़े, जेवर, मेवे और रोजमर्रा की चीज़ों की कई दुकानें थीं। सारे दुकानदार उस लड़के की खिल्ली उड़ाते, “भाई! यह दुकान तो बड़े गज्ब की है। अब तो अक्‍ल भी बिकाऊ हो गई है।”

लड़का उनकी बातों की कोई परवाह नहीं करता था। वह दिनभर आते-जाते ग्राहकों को आवाज़ लगाता रहता, “आओ, आओ!। बुद्धि ले जाओ। एकदम खरी, सस्ती और उपयोगी। एक दाम, सही दाम। आओ साहब, ले जाओ।” लेकिन बहुत दिनों तक बुद्धि के सौदागर की दुकान पर कोई भी ग्राहक नहीं आया।

एक दिन उसने दुकान बंद करने का निश्चय कर लिया। तभी एक धनी सेठ का मूर्ख लड़का उसकी दुकान की ओर से गुज़रा। उसे समझ नहीं आया कि यह कैसी दुकान है।

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“कोई फल या सब्ज्ञी होगी! मेरे पिता मुझे हमेशा निर्बुद्धि और मूर्ख कहते रहते हैं, क्‍यों न थोड़ी बुद्धि खरीद लूँ!” यह सोचकर उसने सौदागर लड़के से कहा, “एक सेर बुद्धि के कितने पैसे लोगे?”

लड़के ने उत्तर दिया, “मैं बुद्धि तौलकर नहीं, उसकी किस्म के हिसाब से बेचता हूँ। मेरे पास तरह तरह की बुद्धि है। सबका दाम अलग अलग है। आपको कैसी बुद्धि चाहिए?”
“तो ठीक है, एक पैसे में जिस तरह की बुद्धि आए, दे दो।” सेठ का लड़का लापरवाही से बोला।
सौदागर लड़के ने कागज़ की एक परची निकाली और सेठ के बेटे को दे दी। उस परची पर लिखा था–
जब दो लोग झगड़ रहे हों तो वहाँ खड़े होकर उन्हें देखना बुद्धिमानी नहीं है।

सेठ का बेटा खुशी -खुशी घर पहुँचा और अपने पिता को कागज़ की परची देते हुए बोला, “देखिए, पिता जी, मैं एक पैसे में अकल खरीदकर लाया हूँ।”

सेठ ने परची पढ़ी और तमतमाकर बोले, “मूर्ख, एक पैसे में यह क्या लाया है? यह बात तो सभी जानते हैं। तुमने मेरा एक पैसा डुबो दिया।”!

बुद्धि का सौदागर हिन्दी कहानी Buddhi Ka Saudagar Story in Hindi

सेठ तुरंत सौदागर की दुकान पर पहुँचा और उस लड़के को बुरा-भला कहते हुए बोला, “लोगों को ठगते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? मेरा एक पैसा वापस करो।”
“पैसा क्‍यों वापस करूँ? माल दिया है पैसा लिया है,” लड़के ने कहा।

“ठीक है। यह लो अपना कागज़ का फटा टुकड़ा जिसे माल कह रहे हो। नहीं चाहिए हमें तुम्हारा माल, यह लो!” कहते हुए सेठ उसकी परची वापस करने लगा।

“परची नहीं, मेरी सीख वापस करो। अगर पैसा वापस चाहिए तो आपको एक कागज़ पर लिखकर देना होगा कि आपका बेटा कभी भी मेरी सीख का प्रयोग नहीं करेगा।”

बात बन गई, दोनों पक्ष मान गए। सेठ ने कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए और अपना पैसा वापस लेकर प्रसन्न हो गया।
समय बीतता गया।

उस प्रदेश के राजा की दो रानियाँ थीं। एक दिन दोनों रानियों की दासियाँ बाज़ार गईं। वहाँ उनका झगड़ा हो गया। बात हाथापाई तक पहुँच गई। लोग चुपचाप खड़े देख रहे थे। उन्हीं में सेठ का बेटा भी था। झगड़ा बढ़ता देख सारे लोग एक-एक कर वहाँ से चले गए मगर सेठ का लड़का करारनामे के अनुसार वहाँ से जा नहीं सकता था। वह अकेला ही खड़ा रह गया। बस फिर क्या था, दोनों दासियों ने उसे अपना गवाह बना लिया। झगड़े की बात राजा-रानियों तक पहुँची। सेठ और उसका लड़का राजदरबार में लाए गए। दोनों रानियों ने लड़के से कहा कि वह उनके पक्ष में गवाही दे। सेठ और उसके बेटे के तो होश उड़ गए। वे सहायता के लिए बुद्धि के सौदागर के पास पहुँचे। बोले, “हमें किसी तरह बचा लीजिए।”
“मैं पाँच सौ रुपए लूँगा।” लड़के ने कहा।

“ठीक है। ये लो पाँच सौ रुपए।” सेठ ने तुरंत पाँच सौ रुपए निकालकर सौदागर को दे दिए।

“देखो, जब गवाही देने के लिए बुलाया जाए तो पागल की तरह व्यवहार करना,” बुद्धि के सौदागर ने उपाय बताया।
सेठ के बेटे ने वैसा ही किया। राजा ने उसे पागल समझकर महल से बाहर निकाल दिया।

इसी तरह की एक-दो घटनाएँ और हो गईं। बुद्धि के सौदागर की चर्चा राजा के कानों में भी पड़ी। राजा ने उसे बुलवाया और पूछा, “सुना है, तुम बुद्धि बेचते हो! क्या तुम्हारे पास बेचने के लिए और बुद्धि है?”
“जी हुजूर! आपके काम की तो बहुत है लेकिन एक लाख रुपए…” सौदागर लड़के ने कुछ हिचकते हुए कहा।
“तुम्हें एक लाख रुपए ही दिए जाएँगें। तुम पहले बुद्धि तो दो।” राजा बोले।
सौदागर ने एक परची राजा को दे दी। राजा ने परची खोलकर पढ़ी!
परची पर लिखा था–
कुछ भी करने से पहले खूब सोच लेना चाहिए।

राजा को यह बात बहुत पसंद आई। उन्होंने अपने तकिये के गिलाफ़ पर, परदों पर, अपने कक्ष की दीवारों पर, अपने बरतनों पर इस वाक्य को लिखवा दिया जिससे वह इस बहुमूल्य बात को कभी न भूलें और न ही कोई और भूल सके।

एक बार राजा बहुत बीमार पड़ गए। राजा के एक मंत्री ने वैद्य के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा और उनकी दवा में विष मिलाकर ले आया। राजा ने दवा का प्याला अभी मुँह के पास रखा ही था कि उसपर खुदे शब्दों पर उनकी नज़र पड़ी– “कुछ भी करने से पहले खूब सोच लेना चाहिए।’ राजा ने प्याला नीचे रखा और दवा को देखकर सोच में डूब गए कि यह दवा पीनी चाहिए या नहीं। वैद्य और मंत्री को लगा कि उनका भंडा फूट गया है। वे दोनों डर गए और राजा से क्षमा माँगने लगे, “महाराज, हमें क्षमा कर दीजिए, हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई।”

राजा ने तुरंत सिपाहियों को बुलवाकर दोनों को कारागार में डलवा दिया। बुद्धि के सौदागर को बुलाकर इनाम में खूब सारा धन दिया और उसे अपना मंत्री बना लिया।

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