शीत बसंत हिन्दी कहानी
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एक राजा की दो रानियाँ थीं-बड़ी रानी और छोटी रानी। घर में बड़ी रानी की ही मर्जी चलती थी। छोटी रानी को अवहेलित करके रखा गया था। राजा भी छोटी रानी से उदासीन रहते थे। छोटी रानी के दिन अत्यंत कष्ट में बीत रहे थे।
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छोटी रानी के दो पुत्र थे-शीत और बसंत। राजा अपने दोनों बेटों का भी खयाल नहीं रखते थे। दोनों को न तो अच्छा भोजन मिलता था, न अच्छे वस्त्र। बड़ी माँ की जली-कटी बातें भी उन्हें सुननी पड़ती थीं। छोटी रानी सब देखती एवं सहती थी, पर बड़ी रानी को इससे भी संतोष नहीं था। वह हमेशा छोटी रानी को नीचा दिखाने की चेष्टा करती रहती।
एक दिन दोनों रानियाँ नदी में स्नान करने गईं। बड़ी रानी ने छोटी रानी को अत्यंत प्यार से कहा, “आओ तुम्हारे माथे में साबुन लगा दूँ। साबुन लगाते-लगाते उसने चुपके से एक दवा की टिकिया उसके माथे पर घिस दी। दुःखियारी छोटी रानी देखते-ही-देखते एक तोता बनकर टी-टीं करती हुई उड़ गई।
घर आकर बड़ी रानी ने कहा, “छोटी रानी तो नदी में डूब गई।” राजा ने सहज ही विश्वास कर लिया। मानो राजभवन की लक्ष्मी चली गई। राजभवन में अंधकार फैल गया। छोटी रानी के दोनों पुत्रोंशीत और बसंत के दुःख की कोई सीमा न रही।
उधर तोता बनी छोटी रानी उड़ती-उड़ती एक राजा के राजभवन में जा बैठी। राजा ने कहा, “सोने का तोता!” राजा की बसंत लता नामक एक सुंदर बेटी थी। वह बोली, “पिताजी, मैं उस सोने के तोते को लूँगी।”
राजा के आदेश से उस तोते को पकड़ लिया गया और एक पिंजरे में बंद कर दिया गया।
दिन बीतने लगे। उधर बड़ी रानी के तीन पुत्र हुए। लेकिन यह क्या ! सभी पुत्र अत्यंत दुबले-पतले, हिड्डयों का ढाँचा मात्र! ऐसा लगता था, मानो फूंक देने से वे उड़ जाएंगे। बड़ी रानी का तो रो-रोकर बुरा हाल। वह बड़े जतन के साथ अपने पुत्रों का पालन करती। खूब पुआ-पकवान, माँस-मछली खिलाती, लेकिन वे मोटे नहीं हो पा रहे थे। संटी की तरह ही दुबले-पतले थे। दूसरी और बड़ी रानी शीत-वसंत को ठीक से खाना भी नहीं देती थी, फिर भी वे मोटे ताजे थे। यह देखकर वह और कुढ़ जाती।
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एक दिन जब शीत और वसंत पाठशाला से पढ़कर लौटे तो देखा कि उनकी बड़ी माँ रणचंडी बनी हुई हैं। उसने उन्हें देखते ही गालियों की बौछारें शुरू कर दी। गला फाड़-फाड़कर रोने लगी। उन्हें मारने लगी। सामानों को फेंकना शुरू कर दिया। जब राजा को इस बात की सूचना मिली तो वे दौड़े-दौड़े आए और उससे पूछा, “तुम्हें क्या हो गया है ?”
रानी गुस्से से थर-थर काँपती हुई बोली, “मेरी सौत के ये दोनों पुत्र जब देखो मुझे उलटा-सीधा कहते हैं, गालियाँ देते हैं। जब तक इनके खून से मैं स्नान न कर लूँ, मेरा कलेजा ठंडा नहीं होगा।”
“राजा ने कहा, ऐसा ही होगा।” फिर उन्होंने जल्लाद को बुलवाया और आदेश दिया, “इन दोनों भाइयों को मारकर इनका खून लाकर बड़ी रानी को दो।”
शीत-वसंत का तो रो-रोकर बुरा हाल! पर जल्लाद को तो राजा के आदेश का पालन करना था, सो उनके हाथ-पैरों को रस्सियों से बाँधकर बलि देने के लिए वह ले जाने लगा। शीत-वसंत के चीत्कार को सुननेवाला वहाँ कोई नहीं था। जल्लाद शीत-वसंत को एक जंगल में ले गया। वहाँ उसके वस्त्र उसने उतरवा लिये और पेड़ की छाल उन्हें पहना दिया। शीत बोला, “भाई, हमारे भाग्य में यही था।”
जल्लाद ने उनके हाथ-पैर खोल दिए और डबडबाई आँखों से कहा, “राजा की आज्ञा है राजपुत्र! क्या करता, मुझे मानना ही था, पर तुम लोगों को मैंने अपनी गोद में खिलाया है। तुम्हारा खून में कैसे कर सकता हूँ? मेरे कपाल में जो लिखा है, होगा। तुम वक्कल के ऊपर चादर ओढ़ लो और इस जंगल से निकल जाओ। कोई तुम्हें राजपुत्र के रूप में पहचान नहीं पाएगा।” यह कहकर उसने उन्हें जंगल से बाहर निकलने का मार्ग बता दिया ओर खुद राजभवन की ओर लौटने लगा। रास्ते में उसने एक कुत्ते एवं सियार को मारा और उसका खून बड़ी रानी को दे दिया। खून पाकर बड़ी रानी बहुत खुश हुई। उसने उस खून से स्नान किया और खिलखिलाती हुई अपने पुत्रों को अत्यंत स्वादिष्ट भोजन कराया और खुद भी खाया।
शीत-वसंत दोनों जंगल के रास्ते से आगे बढ़े। वे चलते रहे, चलते रहे, पर जंगल का कोई अंत नहीं दिख रहा था। थककर वे एक पेड़ के नीचे बैठ गए। वसंत ने कहा, “भाई, बहुत प्यास लगी है। पानी मिलेगा?”
शीत बोला, “हम लोग इतनी दूर तक चलकर आए हैं, पर पानी तो कहीं नहीं दिखा!”
“परंतु प्यास के कारण मेरी तो बहुत बुरी हालत हो गई है,” बसंत बोला।
“ठीक है, तुम यहीं प्रतीक्षा करो। मैं देखता हूँ कि आस-पास कहीं पानी है या नहीं!” शीत ने कहा।
शीत पानी की तलाश में चला। एक जगह उसे एक तालाब दिखाई दिया। समस्या थी कि पानी लेकर जाए कैसे? उसे अपनी चादर का खयाल आया। अगर चादर को पानी में अच्छी तरह भिगोकर ले जाया जाए, तो वसंत की प्यास मिट सकती है। यह सोचकर वह तालाब में उतरा।
जिस राज्य की सीमा के अंतर्गत वह तालाब था, उस राज्य के राजा का अचानक देहांत हो गया। राजा की कोई संतान नहीं थी। समस्या उत्पन्न हुई कि राज सिंहासन पर कौन बैठेगा? सिंहासन को तो खाली नहीं रखा जा सकता है। इस पर काफी विमर्श हुआ। अंत में मंत्रियों एवं प्रजा ने मिलकर तय किया कि जिस व्यक्ति के माथे पर राजतिलक होगा, उसे ही सिंहासन पर बैठाया जाएगा।
योजनानुसार एक सफेद हाथी की पीठ पर सिंहासन बाँधकर हाथी को छोड़ दिया गया। वह हाथी माथे पर राजतिलकवाले व्यक्ति की खोज में निकल पड़ा। इस क्रम में वह उस तालाब के पास पहुँचा, जहाँ शीत अपनी चादर को पानी में भिगो रहा था। शीत के माथे पर राजतिलक देखते ही सफेद हाथी ने उसे अपनी सूंड़ से पकड़ा और सिंहासन पर बैठा दिया। शीत ‘बसंत। बसंत !’ पुकारने लगा, पर सब बेकार ! सफेद हाथी शीत को लेकर तेजी से नगर की ओर चल पड़ा।
इधर बसंत पेड़ के नीचे बैठा भाई के आने का इंतजार कर रहा था। बहुत देर तक जब उसका भाई नहीं आया तो डर के मारे वह रोने लगा। रोते-रोते सारा दिन बीत गया। रात हई तो रो-रोकर वह वहीं सो गया।
दूसरे दिन सुबह एक संन्यासी उधर से गुजरा। बसंत को उस हाल में देखकर उसे बड़ी दया आई। उसने उसे गोद में उठा लिया और जंगल में बनी अपनी कुटिया में ले गया।
उधर सफेद हाथी शीत को लेकर उस राज्य की प्रजा के समक्ष उपस्थित हुआ। सभी ने नए राजा का स्वागत किया। शीत को राजसिंहासन पर बिठाया गया और उसे राजतिलक लगाया गया। शीत को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है ? उसे रह-रहकर अपने भाई बसंत की बहुत याद आ रही थी।
समय बीतने लगा। शीत ने परिस्थिति से समझौता कर लिया। वह कुशलतापूर्वक राज-काज सँभालने लगा। अब उसे किसी भी चीज का अभाव नहीं था।
उधर बसंत जंगल में संन्यासी की कुटिया में अपने दिन बिता रहा था। वह रोज हवन के लिए जंगल से लकड़ियाँ चुनकर लाता, पूजा के लिए फूल तोड़कर लाता और जंगल के कंद-मूल खाकर अपना पेट भरता था। कभी-कभी वह संन्यासी के पास बैठकर शास्त्रों एवं वेदों का ज्ञान भी प्राप्त करता।
शीत और बसंत के पिता पर दैवीय आपदा आई। उनका सारा राज्य नष्ट हो गया। राजा सबकुछ छोड़-छाड़कर अज्ञातवास को चले गए। बड़ी रानी की दशा भी अत्यंत दयनीय हो गई थी। भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करने की नौबत आ गई, परंतु उसके फटे-चिथड़े गंदे कपड़ों को देखकर लोग भी उसे दुत्कार देते। एक दिन दु:खी होकर बड़ी रानी अपने तीनों पुत्रों के साथ समुद्र के किनारे खड़ी थी। अचानक समुद्र की लहरों में तीनों पुत्र बह गए। रानी ने अपने पुत्रों को बचाने की बहुत कोशिश की, पर सब बेकार। दुःखी होकर वह भी समुद्र में कूद पड़ी।
उधर राजा की बेटी बसंतलता अब बड़ी हो गई थी। अपनी रूपवती कन्या के लिए राजा योग्य वर की तलाश कर रहे थे, पर वैसा वर उन्हें मिल नहीं रहा था। तब रानी से परामर्श कर उन्होंने स्वयंवर का आयोजन किया। स्वयंवर सभा में अनेक राज्यों के राजपुत्र उपस्थित हुए। राजा ने घोषणा की कि सारे राजपुत्र अपने आसन पर बैठेंगे और बसंतलता हाथ में माला लेकर सभी के सामने से गुजरेगी। जो राजकुमार उसे पसंद आएगा, उसी के गले में वह वरमाला डालेगी।
इधर बसंतलता ने स्वयंवर के लिए श्रृंगार करना आरंभ किया। बालों का जूड़ा बनाया, आँखों में काजल लगाया, पाँव में आलता लगाया, फिर तोता बनी रानी से पूछा, “और मुझे क्या चाहिए?”
तोते ने कहा, “मैं अगर तुम्हारी जगह होती, तो पाँवों में सोने की पायल पहनती। इससे रुनझुन की बहुत मधुर आवाज आती है।”
बसंतलता ने सोने की पायल पहन ली। फिर पूछा, “बोलो और क्या चाहिए मुझे?”
तोते ने कहा, “अगर मैं तुम्हारी जगह होती, तो सोने की जरीवाली साड़ी पहनती।”
तोते की बात सुन बसंतलता ने सोने की जरीवाली साड़ी पहनी। फिर तोते ने कहा, “अब तुम हीरे का हार पहन लो। बहुत सुंदर लगोगी।”
बसंतलता ने हीरे का हार पहन लिया, फिर पूछा, “अब?”
तोते ने कहा, “नाक में मोती की लौंग, कानों में जड़ाऊ कर्णफूल और माँग में हीरे का टीका पहनने से ही नारी का श्रृंगार पूरा होता है।”
बसंतलता ने सारी चीजें पहन लीं, तब तोते ने कहा, “सब तो हुआ, पर गजमुक्ता न होने से शृंगार तो पूरा होगा ही नहीं। तुम्हारे पास तो गजमुक्ता है ही नहीं। अगर स्वयंवर में आए हुए राजकुमारों में से कोई गजमुक्ता ला दे तो समझना वही तुम्हारे योग्य वर है।”
यह सुनकर बसंतलता ने सारे साज-श्रृंगार उतार दिए और घोषणा करवा दी कि जो राजकुमार उसके लिए गजमुक्ता लाएगा, उसी से वह विवाह करेगी।
घोषणा सुनते ही सारे राजकुमार गजमुक्ता की खोज में निकल पड़े। राजकुमारों ने सुना था कि सभी हाथियों में गजमुक्ता नहीं होती है। समुद्र के किनारे पाए जानेवाले किसी-किसी हाथी में ही गजमुक्ता होती है। अतः सारे राजकुमार समुद्र की ओर चल पड़े। समुद्र के किनारे पहुँचने से पहले ही हाथियों के एक झुंड ने उनपर धावा बोल दिया, जिस कारण अनेक राजपुत्रों के हाथ-पैर टूट गए। अनेक घायल हो गए और इस तरह सब हताश-निराश होकर वापस लौट गए।
कुछ ही दिनों बाद यह समाचार शीत राजा के कानों तक पहुँचा। उसे राजपुत्रों की दुर्दशा पर दया आई और बसंतलता के आचरण पर अत्यंत क्रोध आया। उसने निश्चय किया कि वह बसंतलता के अहंकार को चूर-चूर कर देगा। उसने बसंतलता के पिता के राज्य पर आक्रमण कर दिया। बसंतलता के पिता की पराजय हुई। शीत राजा ने बसंतलता को बंदी बना लिया।
उधर बसंत संन्यासी की कुटिया में दिन बिता रहा था। सारा दिन इधर-उधर घूमता रहता। उसकी कुटिया के पास एक विशाल बरगद का पेड़ था। उसमें एक गुल और एक बुलबुल रहती थीं। एक दिन दुःखी होकर बसंत उसी पेड़ के नीचे बैठा था, तब उसने उस गुल और बुलबुल को बातचीत करते हुए सुना। गुल ने स्वयंवर की सारी घटनाएँ बुलबुल को सुनाईं फिर बोला, “कौन जानता है कि इसका क्या परिणाम होगा?”
बुलबुल ने कहा, “क्षीर सागर के किनारे एक दूध-पहाड़ है। दूध पहाड़ से क्षीर सागर में दूध गिरता है। उस क्षीर सागर में एक स्वर्ण कमल खिला हुआ है। उस स्वर्ण कमल में एक हाथी रहता है। उसी के सिर में गजमुक्ता है।”
गुल ने पूछा, “लेकिन वहाँ पहुँचेगा कौन?”
बुलबुल ने कहा, “कोई साहसी राजपुत्र ही वहाँ पहुँच पाएगा।”
सारी बातें सुनने के बाद बसंत ने उनसे पूछा, “मैं गजमुक्ता लेने जाऊँगा। इस कार्य में तुम दोनों मेरी कुछ सहायता करोगे?”
“जरूर, परंतु तुम पहले संन्यासी के पास जाकर उसका त्रिशूल लेकर आओ, फिर सेमल के पेड़ के पास जाकर राजपुत्र के वस्त्र माँगो। सारी चीजों की प्राप्ति तुम्हें हो जाएगी,” गुल और बुलबुल ने उससे कहा।
बसंत ने संन्यासी से त्रिशूल लिया। सेमल के पेड़ से राजवस्त्र प्राप्त किए और उन्हें पहनकर समुद्र की ओर चल पड़ा। क्षीर सागर पहुँचकर उसने देखा कि स्वर्णकमल के बीच दूध की तरह सफेद एक हाथी के सिर पर गजमुक्ता है। गजमुक्ता की रोशनी से चारों ओर उजाला फैला हुआ है। बसंत उस सफेद हाथी की पीठ पर कूदा। जैसे ही उसने सफेद हाथी के सिर पर त्रिशूल को रखा, वैसे ही सागर, स्वर्ण कमल, सफेद हाथी सब गायब हो गए! वहाँ केवल एक कमल का फूल खिला हुआ था और उसके अंदर गजमुक्ता की माला थी। मनुष्य की आवाज में कमल के फूल ने पूछा, “निश्चय ही तुम राजपुत्र हो? कौन सा राज्य है तुम्हारा?”
बसंत ने कहा, “मैं राजपुत्र नहीं हूँ। एक संन्यासी के साथ जंगल में रहता हूँ।”
“ठीक है, तुम गजमुक्ता को अपने सिर पर और मुझे अपने हृदय में रखो। बसंतलता के साथ तुम्हारा ही विवाह होगा और तुम्हारा जीवन सुख से बीतेगा।”
बसंत क्षीरसागर के बालू पर चलता हुआ वापस लौटने लगा, तभी उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ी, “हम लोगों को भी साथ ले चलो भाई।” वह भौचक्का होकर चारों ओर देखने लगा। उसे आस-पास कोई भी नहीं दिखा। वह आगे बढ़ा तो फिर वैसी ही आवाजें आईं। उसने गौर से बालू को देखा तो उसे लगा कि उसके पैर के पास बालू के अंदर से आवाजें आ रही हैं। उसने त्रिशूल से वहाँ का बालू हटाया तो देखा कि वहाँ तीन सोने की मछलियाँ थीं। वह उन्हें अपने साथ लेकर चल पड़ा।
इधर शीत राजा शिकार खेलने निकला था। एक दिन सारा दिन भटकने के बाद भी उसके हाथ एक भी शिकार न लगा। थककर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया। अचानक उसे याद आया कि वह अपने भाई बसंत को इसी पेड़ के नीचे छोड़कर पानी लाने गया था और फिर एक हाथी उसे एक राज्य में ले गया था। फिर वह कभी इस जगह लौटकर नहीं आ सका था। बसंत का क्या हुआ? वह कहाँ गया होगा? क्या वह जीवित होगा? यह सोचकर वह रो पड़ा। अपने राजभवन में लौटने के बाद भी वह केवल बसंत के बारे में सोचता रहता।
बसंत गजमुक्ता लेकर बसंतलता के राज्य में गया तो वहाँ उसे पता चला कि शीत राजा बसंतलता को बंदी बनाकर अपने राज्य में ले गया है। बसंत सीधा शीत राजा के राजभवन में पहुँचा। राजा के अंगरक्षकों को तीन सोने की मछलियाँ देकर कहा, “अपने राजा से कहो कि बसंतलता को छोड़ दें।”
लेकिन शीत राजा तो अपने भाई के शोक में डूबा अपने कमरे का दरवाजा बंद कर अंदर बैठा हुआ था। राजा की आज्ञा की प्रतीक्षा में बसंत सात दिनों तक हाथ में त्रिशूल लिये, सिर पर गजमुक्ता रखे राजमहल के सामने बैठा रहा। आठवें दिन शीत राजा थोड़े सामान्य हुए तो दासियाँ सोने की मछलियों को काटने बैठीं। लेकिन आश्चर्य! मछलियाँ बोल उठीं,” हमें न काटो। हम राजा के भाई हैं।”
अंगरक्षकों ने जब शीत राजा को बसंत की बात बताई तो वे स्वयं राजभवन से बाहर आए। वहाँ अपने भाई बसंत को देखा तो दौड़कर उसे अपने गले लगा लिया। तभी वे दासियाँ उन बोलने वाली सोने की मछलियों को लेकर राजा के पास पहुँचीं। लेकिन आश्चर्य! शीत राजा के हाथ लगाते ही तीनों मछलियाँ तीन मनुष्यों में बदल गईं। उनहें देखते ही वे पहचान गए। वे बड़ी रानी के पुत्र थे। शीत-बसंत के सौतेले भाई! शीत-बसंत ने बड़ी रानी और राजा के दुर्भाग्य की सारी बातें उनसे सुनीं। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। पाँचों भाई आनंदपूर्वक राजभवन में रहने लगे।
शीत राजा अपने भाई बसंत के विवाह की तैयारियाँ करने लगा। उसने बसंतलता के पिता के पास समाचार भेजा कि उन्हें मुक्त किया जा रहा है।
पिंजरे के तोते ने बसंतलता को खुशखबरी दी, “गजमुक्ता लेकर राजपुत्र आ गया है।”
बसंतलता बोली, “जानती हूँ।”
उसी समय एक दासी दौड़ती हुई आई और उसने प्रसन्नतापूर्वक कहा कि गजमुक्ता लानेवाले राजपुत्र राजा शीत के ही भाई हैं।
बसंतलता बहुत खुश हुईं। उसने तय किया कि वह अपने प्रिय तोते को आज अपने हाथों से स्नान कराएगी। उसने कपिला गाय के दूध में कच्ची हल्दी को पीसकर दूध में मिलाया और उससे तोते को स्नान कराने लगी। इस क्रम में बसंतलता के हाथ से तोते के माथे की दवाई पुछ गई। देखते-ही-देखते तोता एक सुंदर नारी बन गया। वसंतलता ने आश्चर्य से पूछा, “तुम कौन हो? परी या देवी?”
वह बोली, “मैं राजरानी हूँ। शीत और बसंत मेरे ही बेटे हैं।” उसके बाद उसने अपने साथ घटी सारी बातों को उसे बता दिया।
अगले दिन बसंतलता के साथ बसंत का विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ। विदा के समय बसंतलता ने अपने पिता से कहा, “मैं पालकी में अकेली ही जाऊँगी।”
पिता ने पूछा, “यह क्या बात हुई?”
बसंतलता बोली, “मैंने प्रण लिया है कि सुबह प्रार्थना के समय अकेली रहूँगी।”
पिता बोले, “ठीक है, जैसा तुम चाहती हो, वही होगा।”
सभी से विदा लेकर बसंतलता सुंदर पालकी में बैठ गई। उसने चुपके से छोटी रानी को अपनी पालकी में बैठा लिया। बसंत भी अपनी पालकी में बैठ गया।
शीत राजा के महल के पास जब पालकी रुकी, तब उससे बसंतलता के अलावा एक अपूर्व सुंदरी नारी भी उतरी। सब उसे आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। उसने पालकी से उतरते ही पूछा, “कहाँ है मेरे शीत-बसंत ? मेरे पास आओ।”
माँ की पुकार सुनकर शीत-बसंत दौड़कर आए और उससे लिपट गए। बड़ी रानी के तीनों पुत्र भी दौड़कर वहाँ पहुँच गए।
इस सुखद समाचार को सुनकर थोड़े दिनों बाद राजा भी लौट आए। इस प्रकार छोटी रानी के दु:खों का अंत हुआ। सभी के दिन सुखपूर्वक बीतने लगे।