बहु की चतुराई (बिरणबाई) हिन्दी कहानी
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एक गाँव में सात भाई-बहन रहते थे। छः तो भाई और सातवीं बहिन। उसका नाम बिरणबाई था।
अब उसके माँ-बाप तीर्थ जाने लगे, तो माँ ने भौजाइयों को बुलाकर कहा, “तुम मेरी लाडली बिरणबाई को सुख से रखना और कोई भी काम इससे मत कराना।”
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भौजाइयाँ कहने लगीं, “सासूजी, हम तो आपके सामने जो कुछ कहना हो कह देती हैं, पर आपके जाने के बाद हम कुछ भी नहीं कहतीं। धन घड़ी धन भाग, हमारे तो केवल एक ननद बाई है दस-पाँच तो हैं नहीं। और फिर वह तो अपने भाइयों से भी अधिक लाड से रही है।”
माँ-बाप तीर्थ चले गये। इधर सब भाई अपने-अपने काम से बाहर जाते।
एक दिन सब भाई इसी तरह बाहर गये हुए थे। भौजाइयाँ बोलीं, चलो हम सब मिलकर पीली मिट्टी खोद लाएँ।” ननद उत्साही थी। बोली, “हाँ भाभी, चलो, जल्दी ले आएँ।”
सबकी सब पीली मिट्टी लेने गईं। भौजाइयाँ खोदतीं तो पीली मिट्टी निकलती और ननद खोदती ती मोती निकलते। भौजाइयों ने पीली मिट्टी की टोकरी भरी, ननद ने मोतियों की। भौजाइयों ने देखा तो जल गईं। मन में कहने लगी, “रांड न जाने क्या जादू जानती है। घर पर भी न जाने क्या टोना-टोटका करेगी।” फिर वे कहने लगीं, “बाई, तुम यहीं खड़ी रहो, तुमसे यह टोकरी नहीं उठेगी। हम अपनी टोकरियाँ खाली कर आएँ, फिर तुम्हारी ले चलेंगी।” वे जाने लगीं।
बिरण बोली, “नहीं भाभी, मैं भी चलती हूँ। उठा लूँगी इसे तो।”
“नहीं बाई, तुमने इतना बोझ कभी नहीं उठाया। तुम्हें कहीं कुछ हो गया तो तुम्हारे भाई हमें खा जायेंगे। तुम तो थोड़ी देर यहाँ खड़ी रहो, हम अभी आती हैं।”
ननद बेचारी खड़ी-खड़ी भौजाइयों की बाट जोहने लगी कि भौजाइयाँ अब आती हैं, अब आती हैं, पर भाभियों के मन का कपट बेचारी क्या जाने? बैठे-बैठे सारा दिन बीत गया, पर वे नहीं आईं। साँझ हो गई। उसी समय वहाँ से साधुओं की एक टोली निकली। बिरणबाई ने एक साधु से कहा, “महाराज, मेरी टोकरी उठवा दो ।”
साधु ने देखा कि लड़की अकेली है । कहा, “बच्चा तू यहाँ अकेली क्यों है?”
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बिरणबाई ने सब हाल कह-सुनाया। मौका देखकर साधु उसे अपनी टोली में ले गया। बिरणबाई रोने लगी, पर वहाँ कौन सुनने वाला था?
कई दिन हो गये। साधु ने उसे कहीं नहीं जाने दिया। धीरे-धीरे वह उसे छोटे-मोटे गाँव में भिक्षा माँगने भेजने लगा। अब वह सब घर-बार कल गई। साधु ने उसे उस गाँव में जाने से मना कर दिया था, जहाँ की वह रहनेवाली थी। उसने कहा कि, “उधर तुझे कोई पकड़ लेगा, वहाँ भीख नहीं मिलेगी।”
डर के मारे वह बेचारी उधर नहीं जाती थी।
एक दिन साधु बीमार था। बिरणबाई को कुछ याद नहीं रहा और भूल से वह उसी गाँव की गली में चली गई, जहाँ की वह रहने वाली थी। उसकी एक भौजाई द्वार पर खड़ी थी। बिरणबाई जाकर गाने लगी-
सात भाई की एक बिरणबाई,
मोतीड़ा हो खोदते जोगिते पकड़ी।
माई-माई भिख्या दें।
(सात भाईयों की एक बिरणबाई थी। उसे मिट्टी खोदते हुए जोगी ने पकड़ लिया। हे माई, भिक्षा दे।)
भाभियों ने उसे देखा तो ललकारकर भगा दिया। वह सब भाइयों के घर होती हुई आखिर छोटे भाई के द्वार पर पहुँची। वहाँ भी उसने यही गीत गाया। इतने में उसकी माँ सामने आ गई। कहने लगी, ”बाई, तू क्या गाती थी, एक बार फिर से तो गा।”
उसने फिर से गा दिया। माँ की आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी। बिरण की आँखें भी डबडबा आईं। माँ सोच रही थी कि ऐसी ही मेरी बिरणबाई थी। पीली मिट्टी खोदते समय खान में दबकर मर गई। (क्योंकि भौजाइयों ने आकर ऐसा ही बताया था।)
माँ कहने लगी, “बाई तू रोज आया कर। मैं तुझे अपनी बेटी समझकर खूब चीजें दिया करूँगी।”
बिरणबाई को अपनी सब बात याद आ गई। उसने सारा हाल कहा तो माँ-बेटी मिलकर खूब रोईं। इस प्रकार बिरणबाई फिर अपने घर आ गई।
अब माँ-बाप ने उसका ब्याह करने का विचार किया। उधर साधु को मालूम हुआ कि बिरणबाई अपने घर चली गई है तो वह अच्छा होने पर वहाँ आया। उस समय बिरणबाई की सगाई हो रही थी। साधु बोला, “सगाई तो करो, पर चेली तो मेरी है।”
जब उसका ब्याह हुआ तो साधु आकर फिर कहने लगा, “ब्याह तो करो, पर चेली तो मेरी है।”
ब्याह पूरा हुआ और बिरणबाई अपनी ससुराल जाने लगी। साधु फिर आया और कहने लगा, “लाडो तो ले जाओ, पर चेली तो मेरी है।” इस तरह साधु बिरणबाई के पीछे पड़ गया। बारात घर पहुँची तो वहाँ भी साधु आकर कहने लगा, “बारात तो आई, पर चेली तो मेरी है।”
जब इस प्रकार साधु बिरणबाई को जगह-जगह छेड़ने लगा, तो बिरणबाई घबराई। उसने कहा, “ओ प्रियतम, ओ सास जी, मुझे सात ताले में बंद करो, नहीं तो यह साधु मुझे पकड़ ले जायेगा।”
बिरणबाई को ससुरालवालों ने सात तालों में बंद करके सुलाया। अंधेरी रात थी। रात को खड़का हुआ, बिरणबाई जागी। उसने कहा-
“पहला ताला टूटा, सासजी जागो।
दूसरा ताला टूटा, ससुरजी जागो।
तीसरा ताला टूटा, जेठजी जागो।
चौथा ताला टूटा, जेठानी जी जागो।
पाँचवाँ ताला टूटा, देवरजी जागो।
छठा ताला टूटा, देवरानी जी जागो।
सातवाँ ताला टूटा, प्रीतम जी जागो।”
इस तरह बिरणबाई ने सबको जगा दिया। उसी समय साधु ने सातवाँ ताला तोड़कर बिरणबाई के कमरे में प्रवेश किया। सबने मिलकर उसे पकड़ लिया और उसकी ऐसी मरम्मत की कि फिर उसने कभी उस ओर आने का साहस नहीं किया।
बिरणबाई अपने घर में सास-ससुर की सेवा करती हुई आनन्द के साथ रहने लगी।
किस्सा था सो पूरा हो गया, सुनने वाले बूढ़े हो गये।