
गोनू झा मरे! गांव को पढ़े!! कहानी
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ये कहानी गोनू झा के गांव की है। उनके गांव में भी बहुत बड़े वाले रहिते थे। कई लोग उनकी चालाकी से जलते थे, मगर मुंह पर उनके ‘पंखे’ बने फिरते थे।
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गोनू की छट्ठी बुद्धि को शक था कि ई लोगों के प्यार में कुछ झूठ छिपा है। ऊ बहुत दिन से गांव-घर के लोगों के अनमोल प्यार की परीक्षा लेने का पिलान बना रहे थे। अगर बात सिर्फ गांववालों की होती, तो गोनू अपनी जुगाड़ टेक्नॉल्जी से उन्हें तुरंत फिट कर देते। मगर उन्हें तो अपने घरवालों की बातों में भी मिलावट की बास आती थी। तो उन्होंने सोचा कि क्यों न सबको एक बरी चेक किया जाए।
बहुत सोच-विचार के गोनू एक दिन सुबह उठबै नहीं किए। सूरज चढ़ गया छप्पर पर, मगर गोनू झा बिछौना नहीं छोड़े। ओझाइन को जरा अंदेशा हुआ। गईं। जगाया तो ई का… आहि रे दैय्या… रे बाप रे बाप…!!! झा जी के मुंह से तो गाज-पोटा निकला हुआ था और बेचारे बिछौना से नीचे एगो कोना में लुढ़के पड़े थे। ओझाइन तो लगीं कलेजा पीटकर वहीं चिल्लाने। बेटा भी मां की आवाज सुन कर बाबू के कमरे में आया। नजारा देखकर ऊका कलेजा भी दहल गया। उहो लगा फफक-फफक कर रोये।
इधर ओझाइन कलेजा पर दुहत्थी मार-मारकर चिंघाड़ रही थीं, उधर बेटा कहे जा रहा है कि हमारा सब कुछ कोई ले ले, बस हमरे बाबूजी को लौटा दे। ई महादुखद खबर सुनकर गोनू से उनके मरने पर अपने खर्चा पर गंगा भेजने का वादा करने वाले मुखिया भी पहूंच गए। गोदान का भरोसा दिलाने वाले सरपंच बाबू भी। लगे दुन्नो जने झा जी के बेटा को समझाए। “आ।।हा…हा…! बड़े परतापी आदमी थे। पूरे जवार में कोई जोर नहीं। अब विध का यही विधान था।’
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उधर जिंदगीभर झा जी का चिलमची रहा अकलू हज्जाम औरत महाल में ज्ञान बांट रहा था। ‘करनी देखो मरनी बेला! देखा… गोनू झा जैसे उमिर भर सबको बुड़बक बनाते रहे, वैसा ही चट-पट में अपना प्राण भी गया। सारा भोग बांकिए रह गया।’ सरपंच बाबू ओझाइन को दिलासा दिए, ‘झा जी बहुत धर्मात्मा आदमी थे। सीधे सरग गए हैं। अब इनके पीछे रोने-पीटने का कौनो काम नहीं है। कुछ रुपैय्या-पैसा रखे हैं तो गोदान करा दीजिये। बैकुंठ मिलेगा।’
उधर मुखिया जी गोनू के बेटे को बोले, ‘जल्दी करो भाई, घर में लाश ज्यादे देर तक नहीं रहना चाहिए। ऊपर से मौसम भी खराब है। प्रभुआ और सीताराम को तुम्हरे गाछी में भेज दिया है पेड़ काटने। जल्दी से ले के चलो।’ फिर दो आदमी झा जी को पकड़कर कमरे से बाहर निकालने लगे, लेकिन गोनू झा की कद-काठी जितनी बड़ी थी, उनके घर का दरवाजा उतना ही छोटा था। अपना जिनगी में तो झा जी झुककर निकल जाते थे, लेकिन अभी लोग बाहर करिए नहीं पा रहे थे। तभी मोहन बाबू कड़ककर बोले, ‘अरे सुरजा बढ़ई को बुलाओ। दरवाजा काट देगा।’
सूरज तुरंत औजार-पाती लेकर हाजिर भी हो गया। तभी झा जी का बेटा बोल पड़ा, ‘रुको हो सूरज भाई! बाबू जी तो अब रहे नहीं। ऊ बड़ा शौक से ई दरवाजा बनवाये रहे। ई का काटे से ऊ की आत्मा को भी तकलीफ होगा। अब तो ऊ दिवंगत होय गए। शरीर तो उनका रहा नहीं। सो उनका पैर बीच से काटकर छोटा कर देयो। फिर आराम से निकल जाएंगे।’
‘हूं’ करके सूरज बढ़ई जैसे ही झा जी के घुटना पर आरी भिड़ाया कि गोनू झा फटाक से उठकर बैठ गए और बोले, ‘रुको! अभी हम मरे नहीं हैं। ऊ तो हम तुम सब लोगों का परीक्षा ले रहे थे कि मुंह पर ही खाली अपने हो कि मरे के बाद भी।’ अब तो सरपंच बाबू, मुखिया जी, अकलुआ हज्जाम, सूरज बढ़ई और उनका अपना बेटा… सब का मुंह बसिया जलेबी की तरह लटक गया। आखिर सबकी कलई जो खुल गई थी। गोनू झा तो नकली मर के असली जी गए, लेकिन तभी से ई कहावत बन गया कि ‘गोनू झा मरे! गांव को पढ़े!!’ मतलब बुरे वक्त में ही हित और अहित की पहचान होती है।