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कंजूस राजा को नसीहत गोनू झा कहानी Kanjoos Raja Ko Naseehat Gonu Jha Story in Hindi

कंजूस राजा को नसीहत गोनू झा कहानी Kanjoos Raja Ko Naseehat Gonu Jha Story in Hindi

मिथिला नरेश के दरबार में गोनू झा के बुद्धिकौशल और वाक्चातुर्य का जो जादू चल रहा था उसकी कीर्ति मिथिलांचल के आस -पास के क्षेत्रों में भी फैल चुकी थी ।

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मिथिला के पड़ोसी राज्य अंग देश के राजा ने राज्योत्सव के कई अवसरों पर गोनू झा को विशेष रूप से आमंत्रित किया था तथा उन्हें पुरस्कार-अलंकरण आदि से सम्मानित किया था ।

अंग देश के राजा में उदारता थी लेकिन युवराज अपने पिता के ठीक विपरीत प्रवृत्ति के थे। हद से ज्यादा मितव्ययी । राजा के जीवनकाल में ही युवराज की कंजूसी की कथाएँ पूरे प्रदेश में मशहूर हो चुकी थीं । राजा ने युवराज को बहुत समझाया कि प्रजा -पालन के लिए उदारता, करुणा, सहानुभूति आदि की भी जरूरत होती है । इन गुणों को राजा का आभूषण माना जाता है। परम्परा से चली आ रही रीतियों का निर्वाह भी राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । ब्राह्मण, चारण आदि को राज्याश्रय मिलना चाहिए। कलाकारों और साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य की ओर से प्रतियोगिताओं का आयोजन और पुरस्कारों की व्यवस्था राजधर्म है ।

खिलाडियों के मनोबल को बढ़ाने के लिए भी राजकोष का उपयोग किया जाना चाहिए । जैसे सैनिकों को तरोताजा बनाए रखने के लिए प्रतिदिन उसकी कवायद पर राजकोष से व्यय किया जाता है, वैसे ही खिलाड़ियों और कलाकारों के लिए रंगशालाओं के निर्माण और उनके रख -रखाव की व्यवस्था करना राजधर्म है । मगर युवराज को अपने पिता की ये बातें प्रभावित नहीं करतीं । उसे लगता कि इस तरह के आयोजनों से धन और समय दोनों का अपव्यय होता है। चारण और ब्राह्मण तो युवराज को मिथ्याभाषी और लोलुप लगते थे। यदि राजा का भय नहीं होता तो वह अपने महल में चारण और ब्राह्मणों के प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगा देता ।

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एक बार अंग देश के राजा बीमार पड़े । राज वैद्य ने अपने अनुभव से समझ लिया कि राजा अब बचनेवाले नहीं हैं । उचित औषधि राजा को देकर उसने महामंत्री को परामर्श दिया कि युवराज के राज्याभिषेक की व्यवस्था कराएँ।

महामंत्री समझ गए कि राजा अब स्वस्थ नहीं हो सकेंगे। राज्य ज्योतिषी से परामर्श कर युवराज के राज्याभिषेक के लिए शुभ मुहूर्त और शुभ तिथि निर्धारित की गई । इस व्यवस्था के बाद राज वैद्य ने राजा को पूर्णविश्राम में रहने तथा राज्य संचालन की जिम्मेदारी पुत्र को सौंप देने की सलाह दी ।

वार्द्धक्य के कारण राजा भी अब राज-काज से मुक्त होना चाहते थे, ऊपर से बीमारी ने उन्हें अशक्त कर रखा था । राजवैद्य की सलाह उन्हें पसन्द आई। निर्धारित तिथि को शुभ मुहूर्त में युवराज का राज्याभिषेक हुआ । राजा ने अपने पुत्र को स्वयं राज सिंहासन पर बैठाया और विश्राम करने के लिए अपने कक्ष में चले गए ।

युवराज अपने पिता की बीमारी से दुखी था । अपने पिता की हालत से व्यथित युवराज को राजा बनने से कोई प्रसन्नता नहीं हुई। राज सिंहासन पर बैठे नए राजा के स्तुति गान के लिए चारण आए और नए राजा को आशीष देने ब्राह्मण मगर राजा ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया । चारण स्तुति गान और ब्राह्मण मंत्रोच्चार करने के बाद नए राजा की ओर आशा -भरी दृष्टि से देखते हुए अपने स्थान पर खड़े रहे, मगर नए राजा ने उनकी ओर देखा तक नहीं।

महामंत्री ने राजा का ध्यान जब चारण और ब्राह्मणों की ओर आकर्षित किया तो नए राजा ने कहा, “महामंत्री जी ! मेरे पिता मरणासन्न हैं । ऐसे राज-काज सँभालना मेरा दायित्व था इसलिए यह मेरे लिए कोई प्रसन्नता की बात नहीं । राजगद्दी मुझे मिलनी ही थी, सो मिली । नया क्या हुआ ? अब से मेरे दरबार में इस तरह के ‘याचकों’ का प्रवेश वर्जित है । राज-काज इनकी स्तुति और मंत्रोच्चार से नहीं, राजनीतिक कौशल से चलता है । मुझमें मेरे पिता वाली उदारता नहीं है कि इन निखटू-चापलूसों पर धन जाया करूँ – इन्हें अभी इसी क्षण दरबार से निकल जाने को कहें ।”

नए राजा के इस व्यवहार से ब्राह्मण और चारण दुखी हुए । राज्य के कलाकारों और कवि साहित्यकारों को उम्मीद थी कि युवराज के राजा बनने पर राजमहल में कोई रंगारंग कार्यक्रम होगा जिसमें उन्हें अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । हद तो तब हो गई जब राजा बनने के बाद नए राजा ने विद्वत्जनों की बैठक नहीं बुलाई । अंग देश में नए राजा की आलोचना होने लगी। जिधर सुनो, बस यही चर्चा कि नया राजा दंभी और स्वेच्छाचारी है। प्रजा के दुःख- सुख से इसे कुछ भी लेना-देना नहीं ।

ब्राह्मणों, चारणों और कलाकारों ने सोचा कि बिना राज्याश्रय के उनके लिए जीविकोपार्जन कठिन है । उनके पास दो ही रास्ते हैं या तो नए राजा को राजमहल की परम्पराओं के निर्वाह के लिए समझाया जाए या फिर वे राज छोड़कर कहीं किसी अन्य राज्य में आश्रय लें । अन्ततः अंग देश के विद्वत्जनों, ब्राह्मणों, चारणों एवं कलाकारों को गोनू झा की याद आई तथा तय हुआ कि इस मुश्किल की घड़ी में गोनू झा से परामर्श करना उचित होगा । इस निश्चय के बाद ये तमाम लोग मिथिला आए और गोनू झा के आवास पर पहुँचे।

गोनू झा अंग देश के प्रसिद्ध लोगों के समूह को अपने दरवाजे पर देखकर आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने आगंतुक अतिथियों का स्वागत किया तथा सम्मानपूर्वक उन्हें बैठाया । फिर उनसे कुशल- क्षेम पूछते हुए मिथिला पधारने का प्रयोजन पूछा ।

उन लोगों ने जब अंग देश के नए राजा के व्यवहार के बारे में गोनू झा को जानकारी दी तब गोनू झा को भी लगा कि नए राजा के व्यवहार से पड़ोसी राज्य में असंतोष पैदा होगा और इसका प्रभाव मिथिलाँचल पर भी पड़ेगा। गोनू झा को अंग देश के वृद्ध महाराज के रुग्ण होने के समाचार ने भी व्यथित किया और उन्होंने तय कर लिया कि वे इन लोगों के साथ अंग देश जाएँगे । नए राजा को राज्यानुकूल आचरण सिखाएँगे तथा वृद्ध महाराज का दर्शन कर उन्हें आरोग्य लाभ के लिए शुभकामनाएँ देंगे । गोनू झा ने यह निर्णय इसलिए लिया कि अंग देश के विद्वत्जनों ने उनके पास आकर उनके प्रति आस्था जताई थी तथा मिथिलांचल की परम्परा रही है कि दरवाजे पर आए अतिथियों की क्षमता भर इच्छापूर्ति का उपाय किया जाना चाहिए । गोनू झा के प्रति अंग देश के वृद्ध महाराज का स्नेह भाव प्रारम्भ से ही बना हुआ था । प्रायः प्रत्येक राज्योत्सव में उन्होंने गोनू झा को अवश्य बुलाया था और उचित सम्मान व उपहार देकर उन्हें विदा किया था । वृद्ध महाराज के रुग्ण होने की सूचना पर गोनू झा उद्वेलित न होते तो कैसे ?

गोनू झा अंग देश को विद्वत्जनों के साथ चल दिए। रास्ते में उन्होंने नए राजा के आचरण व्यवहार आदि की पूरी जानकारी प्राप्त की फिर उन्होंने उन लोगों को सलाह दी कि जब वे नए राजा से मिलने दरबार में जाएँ तो कोई कुछ भी नहीं बोले । बस, वे जैसा करें, वैसा ही वे सब भी करते जाएँ। लोगों ने उन्हें अपनी सहमति दे दी ।

गोनू झा ने दरबार में खबर भिजवाई कि मिथिला से गोनू झा आए हैं और वे अपने अंग देश के मित्रों के साथ नए राजा के दर्शन के लिए दरबार में उपस्थित होना चाहते हैं ।

नए राजा को जब सूचना मिली कि गोनू झा आए हैं तो उसने ससम्मान दरबार में बुलाने का निर्देश दिया । नए राजा को गोनू झा के बारे में इतना तो पता ही था कि उसके पिता गोनू झा को प्रायः बुलाया करते थे। गोनू झा की विद्वता और विनोदप्रियता की चर्चा भी उसने सुन रखी थी लेकिन उनके साथ अंग देश के विद्वत्जनों को आते देख उसकी पेशानियों पर बल पड़ गए मगर उसने कुछ कहा नहीं। गोनू झा के अभिवादन के लिए नया राजा सिंहासन से उतरकर खड़ा हो गया । गोनू झा ने उसे नमस्कार करने के लिए अपने हाथ जोड़े तब उनके साथ आए अंग देश के विद्वत्जनों ने भी अपने हाथ जोड़े और फिर गोनू झा ने अपने हाथ फैलाकर मुँह खोल लिया और उसी मुद्रा में मूर्तिवत् खड़े हो गए। उनके साथ दरबार में उपस्थित विद्वत्जनों ने भी ऐसा ही किया । गोनू झा सहित इतने सारे लोगों को हाथ फैलाए और मुँह बाये खड़े देखकर नया राजा कुछ समझ नहीं पाया । दरबारी भी इस कौतुक को विस्मय से देख रहे थे।

काफी देर तक नया राजा उन्हें चकित-सा देखता रहा फिर उसके सब्र का बाँध टूट गया । उसने विस्मित भाव से पूछा -” क्या आप लोग मेरे राज्याभिषेक पर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं ? “

गोनू झा ने केवल एक हाथ की अंगुलियों को एक बार नचाया फिर पूर्व की भाँति ही मूर्तिवत् हो गए। उनके साथ आए लोगों ने भी वैसा ही किया । दरबारी चकित थे और नया राजा कुछ भी समझ नहीं पा रहा था ।

उसने फिर गोनू झा से पूछा-“क्या आप लोग वृद्ध महाराज के आरोग्य लाभ की कामना प्रकट कर रहे हैं ?”

गोनू झा ने पूर्व की भाँति ही एक हाथ की अँगुलियों को नचाया और मुँह बाए अपनी पूर्व की मुद्रा में आ गए।

इस तरह की विचित्र स्थिति की कल्पना न नए राजा ने कभी की थी और न उसके दरबारियों ने । अन्ततः नए राजा ने महामंत्री से धीरे से पूछा कि वह क्या करे ?

महामंत्री भी उलझन में थे कि पता नहीं गोनू झा क्या कहना चाह रहे हैं । फिर उन्होंने गोनू झा के साथ आए लोगों को देखा तो पाया कि ये लोग वृद्ध महाराज के राज में दरबार में विशेष सम्मान के अधिकारी थे। इनमें चारण और ब्राह्मण भी थे जिन्हें नये राजा ने कोई तरजीह नहीं दी थी ।

महामंत्री ने नए राजा से अपने अनुमान के आधार पर कहा -” राजन् सम्भवतः ये लोग आपसे कुछ दान-दक्षिणा की प्रत्याशा रखते प्रतीत होते हैं । इन्हें कुछ उपहार प्रदान करें और यथायोग्य आसन प्रदान करें तो सम्भवतः गोनू झा के यहाँ पधारने का प्रयोजन स्पष्ट हो पाए।

नये राजा ने ऐसा ही किया । मिथिला से आए गोनू झा जैसे विद्वान ब्राह्मण का आदर करना नए राजा ने राजनीतिक आवश्यकता के रूप में लिया तथा उनके साथ आए लोगों को भी उसने इसी दृष्टि से सम्मानित किया ।

उचित आसन एवं उपहार मिलने के बाद गोनू झा ने सहज मुद्रा अपना ली । उनके साथ आए लोगों ने भी ऐसा ही किया । फिर गोनू झा ने नए राजा से कहा -” राजन! मैं यहाँ आपके पिता के दर्शन के लिए उपस्थित हुआ हूँ । मेरे साथ जो लोग हैं, वे आपके राज्य की विभूतियाँ हैं । इनके मुँह से अमृत वचन निकला करते थे । उस सिंहासन पर जहाँ आज आप विराजमान हैं, वहाँ वृद्ध महाराज विराजमान हुआ करते थे। राजन्, जब विद्वानों, ब्राह्मणों, चारणों और कलाकारों की जिह्वा से शब्द प्रकट नहीं हो तो भरे दरबार में किस तरह की किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति उपस्थित हो जाती है यह आपने कुछ ही पल पहले देखा और अनुभव किया । अब मेरी प्रार्थना है कि आप स्वयं निर्णय करें कि वृद्ध महाराज के शासनकाल में सरस्वती के इन साधकों के प्रति जो राज -व्यवहार था, उसे जारी रखा जाए या नहीं। राजन् ! जब विद्वान चुप हो जाएगा, कलाकार मौन हो जाएगा तब राज्य में निष्ठा की कमी आएगी और लोग शुष्क वृत्ति की ओर प्रवृत होंगे । राजधर्म है कि जनजीवन में सरसता बनी रहे । इसके लिए ही वृद्ध महाराज इन लोगों को महत्त्व दिया करते थे।”

नए राजा को गोनू झा की बातें समझ में आईं और उसने विनम्रतापूर्वक अंग देश के विद्वत्जनों से अपने व्यवहार के प्रति क्षमा माँगी तथा बताया कि अपने वृद्ध पिता के आरोग्य के लिए चिन्तित रहने के कारण उसने उनके साथ शुष्क व्यवहार किया था जो किसी भी राजा के लिए शोभनीय नहीं था ।

गोनू झा नए राजा की इस आत्म-स्वीकृति से प्रसन्न हुए और कहा -” राजन्! हम सभी वृद्ध महाराज से मिलकर उनके आरोग्य लाभ की कामना करने के इच्छुक हैं । यदि आप इसकी आज्ञा दें तो हम कृतार्थ होंगे ।”

गोनू झा ने जान- बूझकर बहुत औपचारिक भाषा का प्रयोग किया था क्योंकि वे नए राजा को सन्देश देना चाहते थे कि राज्य-संचालन के लिए केवल अपने संवेगों, संवेदनाओं और भावनाओं का ही नहीं बल्कि परम्परा से चली आ रही औपचारिकताओं का भी निर्वाह किया जाना चाहिए।

नए राजा ने गोनू झा की विनम्रता की मन ही मन सराहना की और उन्हें लेकर अपने पिता के कक्ष में पहुँचे। उनके साथ अंग देश के विद्वत्जनों का जत्था भी था ।

गोनू झा और अपने राज्य के विभूतियों को अपने कक्ष में आया देख वृद्ध महाराज बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने गोनू झा से कुछ दिनों तक राज-अतिथि के रूप में अंग देश में रहने का आग्रह किया जिसे गोनू झा ने मान लिया ।

गोनू झा ने वृद्ध महाराज से मिलकर यह महसूस किया कि महाराज का एकाकीपन भी उनके आरोग्य लाभ में बाधक है। उन्होंने राज वैद्य से इस सम्बन्ध में परामर्श किया और उनकी अनुमति से वृद्ध महाराज के कक्ष में प्रतिदिन किसी न किसी कलाकार को बुलाकर उसका गायन, वादन आदि का आयोजन कराते रहे । चारण तो वे खुद थे। वे इस बात का ध्यान रखते थे कि महाराज उदास और एकाकी न हों ।

वृद्ध महाराज का कक्ष कलाकारों के आने- जाने से जीवंत हो उठा और देखते ही देखते वृद्ध महाराज के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा । राज वैद्य ने भी वृद्ध महाराज के स्वास्थ्य में तेजी से हो रहे सुधार को स्वीकार किया तथा घोषणा की कि वृद्ध महाराज अब खतरे से बाहर हैं ।

नए राजा ने जब अपने पिता के स्वास्थ्य में आए इस परिवर्तन को देखा तब वे गोनू झा के प्रति आभार-बोध से भर गया । मगर गोनू झा ने नए राजा को समझाया कि कलाकारों की संगति से महाराज के स्वास्थ्य में यह सुधार हुआ है । वृद्ध महाराज का एकाकी जीवन उनके स्वास्थ्य की राह में अड़चन था । उनके साथ राज वैद्य से लेकर सेवक तक ऐसा व्यवहार कर रहा था कि वे बहुत बीमार हैं तथा उनका बचना मुश्किल है । दरअसल, ऐसा व्यवहार तो किसी स्वस्थ व्यक्ति को भी रोगी बना देगा । कलाकार संवेदनशील होते हैं । वे महाराज के मनोभावों को समझते हुए उनके साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे थे जिसकी आवश्यकता महाराज को थी । इस कारण वृद्ध महाराज के स्वास्थ्य में तीव्रता के साथ सुधार हुआ । नए राजा को अब समझ में आया कि जिन्हें वे निखटू और याचक की संज्ञा दे रहे थे, उनकी उपयोगिता राज्य के लिए कितनी अहम है ।

जब गोनू झा अंग देश से विदा होने को हुए तो नए राजा ने राजमहल में एक रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें राज्य के प्रायः सभी कलाकारों की कला का प्रदर्शन हुआ। इस आयोजन में वृद्ध महाराज भी उपस्थित हुए । नए राजा ने गोनू झा को विदाई से पहले ढेर सारे उपहार दिए और अंग देश के विद्वत्जन गोनू झा को मिथिला तक पहुँचाने आए। वे सभी गोनू झा के प्रति कृतज्ञता-बोध से भरे हुए थे ।

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