
कर्म ही पूजा है गोनू झा की कहानी
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एक बार मिथिलांचल में भयंकर सूखा पड़ा । अनावृष्टि और अकाल से त्रस्त मिथिलावासियों के लिए अनाज का दाना तक मयस्सर होना कठिन हो गया ।
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अनावृष्टि के कारण पेड़-पत्ते मुरझा गए। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे ।
मिथिला नरेश ने अपनी प्रजा के लिए राज-गोदाम के दरवाजे खुलवा दिये मगर उन्हें चिन्ता सताने लगी कि राज्य के अनाज भंडार को रीतते देर नहीं लगेगी। तब क्या होगा , जब यह अनाज भंडार भी खाली हो जाएगा ? मिथिलांचल के विभिन्न इलाकों से साहूकारों और अनाज विक्रेताओं द्वारा लोगों के दोहन की सूचनाओं से भी वे विकल थे मगर कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं थे । पूरे मिथिलांचल की प्रजा और मवेशियों की हालत खराब थी और लोग पलायन के लिए विवश हो रहे थे। इस स्थिति को देखकर मिथिला नरेश ने मुनादी कराई कि कोई भी व्यक्ति किसी सार्थक अनुष्ठान से बारिश कराने की योग्यता रखता हो तो वह सामने आए और अनुष्ठान का आयोजन राजहित में करे ।
इस मुनादी के एक-दो दिन बाद ही मिथिला नरेश के दरबार में एक हट्टा-कट्टा साधु पहँचा। उसने अपने ललाट पर एक टीका तो लगा ही रखा था साथ ही चंदन के बीस ठोपे से अपने ललाट को आच्छादित कर रखा था । उसने महाराज को बताया कि वह एक सिद्ध पुरुष है और हिमालय की एक कंदरा में बीस वर्षों तक कठोर तपस्या उसने की है । वह उनचास पवन सहित समस्त मेघों को आमंत्रित करने में समर्थ है, यदि यज्ञ-अनुष्ठान की उचित व्यवस्था और साधन मिल जाए तब !
अन्धे को क्या चाहिए-दो आँखें ! महाराज साधू की वाणी से प्रभावित हुए और उसका भरपूर सम्मान करते हुए यज्ञ-अनुष्ठान के लिए उसके द्वारा बताई गई समिधा की व्यवस्था करा दी ।
अनन -फानन में यज्ञ की तैयारियाँ हो गईं ।
राजमहल के सामने के खुले मैदान में यज्ञ -मंडप बनाया गया । आस-पास के गाँवों में इस सिद्ध पुरुष की चर्चा होने लगी। कोई कहता-बीस-ठोप-बाबा बड़े चमत्कारी हैं , तो कोई कहता-ऐसा सिद्ध पुरुष लाखों वर्षों के बाद धरती पर आता है !
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यह घटना उस समय की है जब गोनू झा किसी प्रयोजन से मिथिलांचल के बाहर गए हुए थे। जब वे अपने गाँव लौटे तब उन्होंने सुना कि मिथिलांचल में वर्षा कराने के लिए महाराज ने मेघ यज्ञ कराने की व्यवस्था की है तथा हिमालय की कंदरा से तपस्या करके सिद्धि प्राप्त ‘बीस -ठोप -बाबा’ यह यज्ञ करवा रहे हैं । यह सुनते ही गोनू झा बेचैन हो गए । उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि मेघ यज्ञ कराने वाला व्यक्ति ढोंगी होगा विश्वसनीय नहीं ।
वैसे भी गोनू झा कर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। साधु, गंडा , ताबीज आदि में विश्वास नहीं करते थे । ढोंगी साधुओं की कलई खोलने में उन्हें बड़ा मजा आता था । गोनू झा अपने स्तर पर सक्रिय हो गए तथा ‘बीस -ठोप-बाबा’ के बारे में तरह- तरह की जानकारियाँ उन्होंने प्राप्त की । मसलन , वे कैसे दिखते हैं , क्या पहनते हैं , कैसे बोलते हैं , कैसे चलते हैं आदि ।
दूसरे दिन , शाम ढलने को थी । यज्ञस्थल पर मिथिलावासियों की भीड़ थी और हवन-कुंड में आहुतियाँ डाली जा रही थीं । मंत्र घोष हो रहा था । तभी लोगों की भीड़ चीरता हुआ नाटे कद का एक स्थूलकाय साधू यज्ञ-स्थल पर पहुँचा और गरजती- गुर्राती सी आवाज में बोला -“यह अशुद्ध मंत्रों का घोष क्यों हो रहा है ? इससे दिशाएँ प्रकंपित हो रही हैं और अग्नि कुपित ! यदि अशुद्ध मंत्रोच्चार होता रहा तो अनिष्ट की आशंका को टालना सम्भव नहीं होगा !”
हठात् मंत्रोच्चार बंद हो गया । एक तेजस्वी साधू को यूँ गुरुगम्भीर वाणी में बोलता सुन मिथिलांचल के धर्मभीरु लोग सहम गए। सबको जैसे काठ मार गया !
यज्ञ कराने वाला साधु यज्ञ में पहुँची इस बाधा और दिव्य-सा दिख रहे साधु को देख थोड़ा अचम्भित हुआ क्योंकि उसे यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मिथिला नरेश की अनुमति से आरम्भ किए गए अनुष्ठान में कोई अड़चन भी डाल सकता है । यज्ञ में भाग ले रहे लोगों की हालत देखकर उसने तुरन्त महसूस किया कि यदि वह चुप रहा तो उसके ‘प्रभाव’ को ठेस पहुँचेगी इसलिए वेदी से उठते हुए उसने कुपित होकर कहा -” तू कौन है ? कैसे कहता है कि अशुद्ध मंत्रोच्चार हो रहा है?”
तेजस्वी- सा दिखने वाले साधू ने ऊँची आवाज में कहा -“मूर्ख, मुझे नहीं पहचानता ? मैं हिमालय के शीर्ष पर इन्द्र-आराधना में शत वर्षों में शत कोटि इंद्रोपासन मंत्र का जप करनेवाला मैं शत -ठोप-महाराज हूँ ? मुझसे प्रसन्न होकर इन्द्र भगवान ने मुझे एक ऐसा बाँस प्रदान किया है जिसके हिलाने से वर्षा होने लगती है और तू पूछ रहा है कि मैं कौन होता हूँ अशुद्ध मंत्रघोष का विरोध करनेवाला ?”
यज्ञकर्ता साधू इस उत्तर से भीतर ही भीतर डर गया लेकिन लोगों के सामने अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए उसने कहा -” इस तरह का बाँस तू रखता कहाँ है ?”
तेजस्वी दिखनेवाले साधू ने कुपित होकर कहा” तुम जैसे ढोंगी साधुओं के मुँह में दिखाऊँ ?”
इतना सुनना था कि वह साधू शान्त हो गया और यज्ञस्थल से पीछे की ओर बढ़ने लगा। जब लोगों ने उसे टोका -बाबा, किधर चले ? तब उसने कहा -जरा मैदान जाना है लघुशंका के लिए! कुछ लोग उसके पीछे-पीछे चले लेकिन अँधेरे का लाभ उठाकर वह साधू किसी झाड़ी में जा छुपा। लोग निराश लौट आए।
उधर यज्ञस्थल का नजारा बदला हुआ था । तेजस्वी अपना गेरुवा लबादा उतार चुका था और दाढ़ी , मूंछे और जटा-जूट निकालकर यज्ञ-मंडप के पास रख दिया । लोगों ने देखा-अरे यह तो अपने गोनू पंडित हैं !
गोनू झा ने ठहाका लगाते हुए लोगों से कहा -” देख लिया न ढोंगी साधू का हाल ! अरे भाइयो , ऐसे ढोंगियों से बच के रहना सीखो। यदि वह सिद्ध पुरुष होता तो क्यों महाराज और आप लोगों से दान-दक्षिणा और चढ़ावा की बात करता ? समझा करो भाई ! जाओ, अपने-अपने काम में लगो । समझो , कर्म ही पूजा है ।