फूलों की घाटी हिन्दी लोक कथा
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बहुत पुरानी बात है। हिमालय पर्वत की घाटी में एक ऋषि रहते थे। वे गोरे-चिट्टेथे, उनकी श्वेत धवल दाढ़ी था और कंद, मूल, फल खाते थे । अपना अधिक समय वह तपस्या में व्यतीत करते थे। कभी-कभी बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच अकेले वह उदास हो जाते। उदासी तोड़ने के लिए अक्सर वह जोर से बोलने लगते। उन्हीं की आवाज ऊंचे पर्वतों से टकराकर लौट आती। दूर-दूर तक नजर दौड़ाकर वह कुछ खोजने लगते। चारों ओर दूध-सी सफेद बर्फ ही दिखाई देती। उनका मन और उदास हो जाता।
एक दिन उन्होंने ध्यान लगाकर भगवान से कहा, ‘प्रभु कभी-कभी मन नहीं लगता, सूने पहाड़ की उदासी काटने लगती है। कुछ कृपा करो।’
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ऋषि अभी ध्यानमग्न ही थे, तभी उन्हें छम-छम करती पायल की झंकार सुनाई दी। उन्होंने आंखे खोलीं। देखा, हिम-सी एक बालिका श्वेत वस्त्रों से सजी सामने खड़ी थी। मंत्रमुग्ध ऋषि ने दौड़कर बच्ची को गोद में उठा लिया। उनका हृदय पुलकित हो उठा। खुशी में आंखों से आंसू बहने लगे।
ऋषि के आंसू बहते देख, बच्ची मीठी वाणी में बोली, ‘बाबा रोते क्यों हो?’
‘मैं रो नहीं रहा हूं। ये खुशी के आंसू हैं मेरी बच्ची। बताओ, तुम कहां से आई हो? तुम्हारा नाम क्या है? तुम किसकी बेटी हो?’ ऋषि ने पूछा।
बच्ची बोली, ‘मैं नीचे की घाटियों से आई हूं। मेरी मां ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। मेरी मां का नाम प्रकृति है। मेरा नाम है सुषमा।’
‘तुम कब तक मेरे पास रहोगी? मुझे लगता है, अब एक बार तुम्हें पा लिया तो मैं एक क्षण भी तुम्हारे बिना न रह सकूंगा। अब तुम मुझे छोड़कर कभी न जाना।’ कहते हुए वृद्ध ऋषि विभोर हो गए।
‘मैं तुम्हारे पास ही रहूंगी बाबा। मेरी मां ने कहा है, उदास ऋषि के चारों तरफ खुशी बिखेर देना, ताकि कभी किसी को भी भविष्य में हिमालय में उदासी न घेरे। मैं कभी भी तुम्हें छोड़कर न जाऊंगी। आज से तुम मेरे बाबा हो। यह हिमालय मेरा घर है।’ बच्ची ने कहा। ऋषि प्रसन्न थे। वह बच्ची का हाथ थामे, बर्फानी पर्वतों पर घूमते। कभी उसे गोद में लिए मीलों चलते। दोनों प्रसन्न थे। अक्सर ऋषि बालिका को कथा सुनाते।
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एक दिन ऋषि ने बालिका को हंसने वाली मनोरंजक कथा सुनाई, तो वह खिलखिला कर हंस दी। जब वह खिलखिल हंस रही थी, तो ऋषि उसी तरफ देख रहे थे। बच्ची की हंसी के साथ रंग-बिरंगे, सुंदर फूल झर रहे थे। वह मंद हवा के साथ दूर-दूर तक फैलते जा रहे थे। थोड़ी देर में बच्ची ने हंसना बंद किया। तब तक दूर-दूर तक फूल ही फूल धरती पर उग आए थे। ऋषि ने दूर तक देखा और मुसकुराकर कहा, ‘यही है फूलों की घाटी। इस धरती का स्वर्ग।’
फूलों के सौंदर्य में डूबे ऋषि बालिका के साथ घूमते रहे। एक दिन उनकी अंगुली पकड़े बालिका ठुमक-ठुमक कर चल रही थी, तभी एकाएक उसका पैर फिसला और उसे चोट आ गई। कोमल तो वह थी ही। ऊं…ऊं… करके रोने लगी। बड़ी-बड़ी आंखों से मोती से आंसू ढुलक-ढुलक कर धरती पर गिरने लगे। ऋषि ने उसे संभाला। चोट को सहलाया। बच्ची चुप हुई, तो ऋषि ने देखा कि जहां-जहां आंसू की बूंदे गिरी थीं, वहां जल धाराएं बह रही हैं। निर्झर झर रहे हैं। ऋषि जैसे तृप्त हो गए, उस दृश्य को देखकर।
सचमुच बच्ची ने ऋषि की उदासी मिटा दी। मुदित मन से ऋषि उसे लिए ऊंची चोटियों पर, यहां से वहां जाते। जहां बच्ची हंसती, वहां फूल बिखर जाते, जहां रोती, वहां झरने बहते, अब सुंदरता हिमालय पर सर्वत्र छा गई। ऋषि की उदासी दूर हो गई। बाबा और बच्ची दोनों मगन थे।
समय बीतने लगा। बहुत-बहुत वर्षों बाद बर्फानी पर्वतों, फूलों की घाटियों और नदी-झरनों के नीचे की घाटियों में रहने वालों को इस अनोखे सौंदर्य की खबर मिली। वे लोग मार्ग खोज-खोज कर ऊपर जाने लगे। कठिन मार्ग में उन्हें थकावट लगती, कष्ट होता, पर ऊपर पहुंचकर सब भूल जाते। धीरे-धीरे अपने मार्ग के कष्ट को दूर करने के लिए उन्होंने अच्छा सुगम मार्ग बनाने का विचार किया। हरी-भरी धरती पर लगे कुदाल चलाने। कभी सह लेती धरती मां, पर कभी गुस्से से गरज पड़ती और पहाड़ टूट जाते। हरियाली पर टूटा पहाड़ मनुष्य की निर्दयता की कहानी कहता।
लोग आने लगे, ऋषि और बालिका ऊंची-ऊंची चोटियों की ओर बढ़ने लगे। वे जहां जाते, सूखे पर्वत सौंदर्य से भर जाते। इस तरह ऋषि ने सुषमा को साथ लगाकर हिमालय को स्वर्ग के समान बना दिया। आज ऋषि नहीं है, मगर हिमालय के झरनों, हरे मैदानों और फूलों की घाटी के रूप में सुषमा चारों ओर जैसे हंसती-मुसकुराती ऋषि की कहानी कहती दीख पड़ती है।