
सूद मूल बराबर गोनू झा कहानी
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गोनू झा अपने आरम्भिक दिनों में बहुत गरीब थे। दो जून की रोटी जुटाना उनके लिए कठिन था । ऐसे ही दिनों में घर में ऐसी जरूरत आ पड़ी जिसे टालना मुश्किल था ।
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गोनू झा को महाजन के पास जाना पड़ा और उससे सूद पर दो सौ रुपए उधार लेना पड़ा ।
दिन बीतते गए। चाहकर भी गोनू झा महाजन का पैसा वापस नहीं कर पाए। सूद बढ़ता गया । एक दिन गोनू झा के घर महाजन आ धमका और पैसे वापस करने की जिद करने लगा । गोनू झा उसे टालना चाह रहे थे मगर महाजन था कि टलने का नाम नहीं ले रहा था ।
गोनू झा से महाजन ने ठेठ लहजे में कहा – “पंडित जी , सब्र की भी सीमा होती है । अब सूद – मूल मिलकर चार सौ रुपए हो गए। बिना पैसे लिए मैं यहाँ से जाने वाला नहीं । “
गोनू झा परेशान हो गए । अन्त में उन्होंने कहा – ”मुझे एक चिट्ठी लिख लेने दो -फिर सूद मूल की बात करना। “ गोनू झा ने एक कागज पर चिठ्ठी लिखी। चिट्ठी को मोड़कर धोती के फेंट में लपेट लिया और फिर महाजन से बोले – “ सेठ जी ! आप नहीं मान रहे हैं तो लीजिए, अब मैं अपनी इहलीला समाप्त कर रहा हूँ । मैंने यह चिठ्ठी महाराज के नाम लिखी है जिसमें मैंने साफ – साफ लिख दिया है कि मैंने महाजन से सूद पर दो सौ रुपए लिए थे। महाजन का कहना है कि सूद समेत मुझे चार सौ रुपए देने हैं और मेरे पास पैसे नहीं हैं । इसलिए मैं अपनी फजीहत कराने से अच्छा मर जाना समझकर फाँसी लगा रहा हूँ । “
गोनू झा ने एक धोती समेटी और उसका फंदा बनाकर बनेरी में बाँधने लगे। महाजन के हाथ के मानो तोते उड़ गए । उसे जैसे काठ मार गया । जब गोनू झा ने धोती का फंदा अपने गले में लगाया तो महाजन को होश आया और उसने गोनू झा के पाँव पकड़ लिए तथा वह गिड़गिड़ाने लगा – ” नहीं महाराज , नहीं। आप ऐसा काम नहीं करें । ब्रह्महत्या का पाप मुझ पर लगेगा मेरा परलोक बिगड़ेगा ।
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मैं सूद छोड़ने को तैयार हूँ । आप मेरा मूल दो सौ रुपये लौटा दें , मैं खुशी- खुशी चला जाऊँगा। “
लेकिन गोनू झा नहीं माने। उन्होंने कहा – “मैं दो सौ रुपया कहाँ से दूँ? मेरे पास एक धेला भी नहीं है । ऐसी जिन्दगी से तंग आ गया हूँ । मेरे लिए मर जाना ही बेहतर है।”
महाजन यह सोचकर डर गया था कि गोनू झा की चिट्ठी से उस पर उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का आरोप लगेगा और वह महाराज के कोप का भाजन बन जाएगा । डर से महाजन के प्राण सूख रहे थे। शरीर से ठंडा पसीना रिस रहा था । उसने गोनू झा से कहा “पंडित जी ! दो दिन के बाद ही मेरे बेटे का विवाह है। इसीलिए पैसे की जरूरत है वरना मैं आपके दरवाजे पर कदम भी नहीं रखता । चलिए मैं मूल में से एक सौ रुपए और छोड़ देता हूँ। मुझे बाकी पैसे दे दीजिए, मैं वापस चला जाऊँगा। “
गोनू झा ने अपने गले से फंदा हटाया । चौकी से नीचे उतरे। बहुत शान्त स्वर में उन्होंने महाजन से कहा – “ठीक है । आपसे मैंने दो सौ रुपए उधार लिए थे। उसमें से आपने एक सौ रुपए छोड़ दिए हैं । अब आपको मुझसे सौ रुपए लेने हैं । परसों आपके बेटे की शादी है। मैं पंडित हूँ । यह शादी मैं करा दूंगा । एकावन रुपए शादी कराने के, इक्कीस रुपए तिलक के, इक्कीस रुपए नवग्रह शान्ति के तथा इक्कीस रुपए गाँठ बाँधने के यानी कुल एक सौ चौदह रुपए बनते हैं । अब आप यह मान लें कि आपने मुझे पंडिताई के लिए सौ रुपए पेशगी दी है । विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद आप मुझे चौदह रुपए दे दीजिएगा । अब जाइए, विवाह की तैयारी कीजिए । हमारा आपका हिसाब बराबर हो चुका है । “
बेचारा महाजन चुपचाप वहाँ से चला गया और गोनू झा के चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी ।